पता हो
कि सपना
बिखर सकता
है तो
ज्यादा निराशा
नहीं होती
है, लेकिन
सपनों से
खेला जाए
तो दिल
टूटता है।
सपनों के
सौदागर की
तरह दिल्ली
की सत्ता
पर काबिज
हुए मुख्यमंत्री
अरविंद केजरीवाल
ने उन
मतदाताओं के
साथ यही
किया जो
यह माने
बैठे थे
कि 'नई
हवा' के
साथ उनकी
भी सेहत
बदलेगी। जनता
को कहां
पता था
कि केजरीवाल
की शक्ल
में आई
नई हवा
अपनी दिशा
तय करके
आई है।
केजरीवाल पूरी
पटकथा पहले
ही लिखकर
आए थे।
संभवत: डेढ़
महीने में
ही एक
शहीद की
तरह सत्ता
को कुर्बान
कर नई
राह चुनने
की तिथि
भी पहले
ही तय
हो गई
हो।
भारतीय राजनीति
में असम
गण परिषद
के नेता
प्रफुल्ल महंत
और विश्वनाथ
प्रताप सिंह
के उदाहरण
बहुत पुराने
नहीं हुए
हैं। केजरीवाल
ने उन्हें
फिर से
ताजा कर
दिया है।
जेब से
कागज का
एक मुड़ा
हुआ टुकड़ा
दिखाकर वीपी
सिंह ने
जनता को
यही सपना
दिखाया था
कि बोफोर्स
का कमीशन
खाने वाले
लोग और
स्विस बैंक
में काला
धन जमा
करने वाले
नेताओं की
नकाब अब
हटेगी। तब
एक नारा
लगा था-'राजा नहीं
फकीर है,
देश की
तकदीर है।'
कुछ दिनों
में ही
जनता का
भ्रम दूर
हो गया
था। कुछ
ही ऐसी
ही कहानी
असम गण
परिषद की
सरकार भी
रही थी।
केजरीवाल ने
भी लोगों
का विश्वास
तोड़ दिया।
28 दिसंबर को
केजरीवाल ने
मुख्यमंत्री पद की शपथ ली
तो उसी
वक्त से
उन्हें पता
था कि
सरकार की
आयु लंबी
नहीं है।
जिसके खिलाफ
लड़कर आए
हों उसी
के साथ
सरकार चल
भी कब
तक सकती
है? रामलीला
मैदान में
शपथ ग्रहण
का पूरा
तौर तरीका
ही इसका
संकेत था।
अप्रैल 2011 में
इसी रामलीला
मैदान में
जन लोकपाल
के लिए
अन्ना का
आंदोलन हुआ
था। उसके
बाद दिसंबर
2012 में एक
युवती के
साथ सामूहिक
दुष्कर्म की
घटना ने
दिल्ली के
अंदर युवाओं
और महिलाओं
के बीच
एक ऐसे
वर्ग को
पैदा कर
दिया जो
वर्तमान व्यवस्था
से उचाट
हो रहा
था। दिल्ली
में पंद्रह
साल से
और केंद्र
में एक
दशक से
चल रही
कांग्रेस सरकार
ने ऐसा
माहौल बना
दिया जिसमें
व्यवस्था परिवर्तन
का नारा
बहुत रंग
लाया।
केजरीवाल ने
जो वादे
किए उस
पर 10 लाख
संविदा कर्मचारी,
संगठित और
असंगठित क्षेत्रों
के लोगों
ने भरोसा
किया और
जी जान
से उनके
साथ लग
गए। युवा
वर्ग को
लगा कि
नए आदमी
के साथ
अवसरों का
झरोखा खुलेगा।
दिल्ली की
तस्वीर बदलने
के लिए
महिलाओं और
युवाओं की
यह सोच
काफी थी,
लेकिन यह
भ्रम केजरीवाल
और उनके
साथियों में
कभी नहीं
रहा। उन्होंने
एक लाइन
पहले ही
खींच रखी
थी।
सरकार में
आने के
बाद भी
उनकी अंतरधारा
उन्हें आंदोलन
की ओर
खींचती रही।
आंदोलन आप
की ताकत
है और
आम चुनाव
से पहले
मुख्यमंत्री पद की आहुति देकर
केजरीवाल ने
फिर से
ज्वाला भड़काने
की तैयारी
कर ली
है। इस
क्रम में
सपने टूटते
हैं तो
फिलहाल यह
जनता की
फिक्र है।
जनता को
सोचना चाहिए
कि ऐसे
मांझी के
हाथ तकदीर
की पतवार
देने के
अपने खतरे
भी हैं।
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